शनिवार, 16 जून 2018

आत्म -निवेदन

आत्म -निवेदन 
संसार में रहते हुए व्यक्ति के जीवन में जो भी सुख और दुःख आते हैं, उनका कारण उस व्यक्ति के द्वारा किये हुए कर्म ही होते हैं |  कर्म दो प्रकार के होते है एक शुभ कर्म जिन्हें पुण्य के नाम से जाना जाता है और दूसरे अशुभ कर्म होते हैं, जिन्हें  पाप के नाम से जाना जाता है  | पुण्य कर्मों से सुख होता है और पाप कर्मों से दुःख होता है | यह सृष्टि का अटल नियम है | सर्वव्यापक प्रभु इस सृष्टि के  नियन्ता (सृष्टि को नियम में चलाने वाला )है | हमारे प्रत्येक कर्म व चेष्टा को भलीभांति जानता है  | उसी के अनुसार वह कर्मोँ के फलों का निर्धारण करता है यदि हमें  दुखों से छूटना  हैं तो हमें  पाप कर्मोँ  से विरत (अंत करना ) होना पड़ेगा | पाप कर्मों से छुटकारा (विरत ) पाने के लिए परमात्मा हमारे अंदर व्यापक होकर हमें सतत(लगातार और हमेशा ) प्रेरणा कर रहा है  | जब व्यक्ति अच्छे कर्म करता है तब उत्साह, और जब  बुरे कर्म करता है तब वह व्यक्ति आत्मग्लानि के भाव से भवित उसी (परमात्मा  जो के उस व्यक्ति में  समाहित है ) के द्वारा होता है  | मनुष्य अपने द्वारा बनाई हुई प्रवृत्तियों  का दास होता  है | जिसे मनीषियों ने स्वभाव या  प्रकृति कहा है |  व्यक्ति  की जैसी प्रकृति(स्वभाव ) बन जाती  है व्यक्ति उसी के अनुसार न चाहते हुए भी काम  करने को बाध्य हो जाता है |  कर्म करने वाला स्वयं ये जानता है कि  मैं  कुछ गलत कर रहा  हूँ और यह ठीक नहीं है  | फिर भी  स्वभाववश जैसी प्रकृति होती हैं वह वैसा ही करने को विवश होता है  | यदि व्यक्ति अपनी प्रकृति को उत्तम बना ले तो कैसा ही विकृत वातावरण हो फिर भी व्यक्ति शुभ कर्मों को छोड़ नहीं सकता है | उत्तम प्रकृति बनाने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही पुरुषार्थ करना चाहिए| हमें अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में सावधान रहकर पाप की प्रवृत्तियों से लड़ने का अभ्यास करना होगा | कर्मों का निरन्तर अभ्यास ही तो हमारी नई प्रकृति का निर्माण करता है |


                                                                                                                           -नित्य कर्म विधि